सत्ता और बलवंडा गुरु अर्जुन देव जी के दरबार में कीर्तन किया करते थे | अपनी कमअक्ल और उतावलेपन के कारण उन्होंने बिना सोचे समझे गुरु जी से अर्ज की कि घर में बेटी की शादी है, संगत से कहो कि यह दान इकट्ठा करके उनकी सहायता करें | जब उन्हें कुछ सहायता न मिली तो नाराज होकर उन्होंने सत्संग में आना बिल्कुल बंद कर दिया |
उन्हें भ्रम था कि उनके मधुर कीर्तन के कारण ही लोग सत्संग में आते हैं, यदि वह कीर्तन नहीं करेंगे तो संगत भी आना छोड़ देगी |
उनके व्यवहार से दुखी होकर गुरुजी ने उन्हें कई संदेश भेजें कि सत्संग में आकर कीर्तन करें पर वह आने के लिए ना माने |
गुरु अर्जुन साहिब में सहनशीलता और नम्रता कमाल की थी, जरा बुरा न माना, बल्कि आप उनके घर गए और उन्हें कहा कि जितना रुपया हमारे पास है ले लो, बाकी रुपया फिर सही, लेकिन रूठो नहीं और आकर कीर्तन करो | फिर भी न माने | उनको पक्का विश्वास हो गया कि हमारे बिना इनका काम नहीं चलता, इसलिए अब खुद आए हैं | वे बोले कि अगर हम कीर्तन नहीं करेंगे तो संगत नहीं आएगी, और यह भी कहा कि जो आपके बड़े गुरु नानक जी थे उनके पास भी लोग मरदाने को सुनने के लिए ही आते थे | इसी तरह गुरु नानक साहिब से लेकर सारे गुरु साहिबान की निंदा की |
अर्जुन साहिब ने कहा कि आप मेरी चाहे जितनी मर्जी निंदा कर लेते, लेकिन मेरे गुरु नानक साहिब और अन्य गुरु साहिबान की शान में गुस्ताखी के वचन नहीं कहना चाहिए थे | जाओ, तुम भ्रष्ट हो गए | जो तुम्हारा मुंह देखेगा वह भी भ्रष्ट हो जाएगा, जो तुम्हारी सिफारिश लेकर आएगा उसका मुंह काला करके उसे गधे पर सवार किया जाएगा और पीछे लड़के लगाए जाएंगे और गांव-गांव घुमाया जाएगा |
इधर गुरु साहिब ने और आदमी बुलाकर कीर्तन करवाना शुरू कर दिया | जब संगत को पता चला तो संगत ने भी सत्ता और बलवंडा को दुत्कार दिया | मालिक की मौज, वे दोनों उसी वक्त सख्त बीमार हो गए, उन्हें कोढ़ हो गया और शरीर से खून और पीप बहने लगी | जितना रुपया पास था, सारा दवाइयों पर खर्च हो गया | अब जिस शिष्य के पास जाते वह मुंह फेर लेता | जो गुरु के द्वारा दुत्कार दिया गया हो उस से भला कौन बोले | जिधर जाते, शिष्य दरवाजा बंद कर लेते | जब बहुत परेशान हो गए तब भाई लद्दा के पास गए | लद्दा अपने परोपकार के लिए मशहूर था | उसको आवाज लगाई, “भाई लद्दा ! लद्दा !! जैसे भी हो सके अब हमको बचाओ | दुनिया में कोई हमारी सूरत भी देखने को तैयार नहीं है | जब लद्दा ने उनकी
आवाज सुनी, उसने भी मुंह ढक लिया और दरवाजा बंद करते हुए बोला कि गुरु के दुत्कारे हुए को कौन बर्दाश्त करें ! गुरु के दुत्कारे को मुंह लगाना मौत से भी बुरा है | जब उन्होंने बहुत विनती की और कहा कि गुरु की खातिर हमें बचाओ तो उसने कहा, अच्छा, जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं करूंगा | अब तुम जाओ |” तब वे अपने घर को चले गए |
भाई लद्दा ने एक गधा लिया | अपना मुंह काला किया, गधे पर सवार हो गया, पीछे लड़के लगवाए और गुरु साहिब की शर्त को पूरा करता हुआ, गांव गांव फिरता हुआ अमृतसर आया | जब सारे शहर का चक्कर लगाकर गुरु साहिब की और आया तो उन्होंने दूर से देखकर पूछा, ” यह शोर कैसा है ? संगत ने कहा कि जी ! लद्दा गधे पर चढ़ा आ रहा है | जब लद्दा
पास आया तो अर्ज की,” सच्चे पातशाह ! गुरु के दुत्कारे हुए का कहीं ठिकाना नहीं, अगर कहीं ठिकाना हो तो बताओ |” गुरु साहिब दयाल हो गए और फरमाया, ” अच्छा ! सत्ता और बलवंडा दोनों को बुलाओ और कहो कि जिस मुंह से गुरु साहिबान की निंदा की थी उसी मुंह से प्रशंसा करें |” वह सारी प्रशंसा गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है | मतलब तो यह है कि संतों के द्वार से निकाले गए जीव को कहीं जगह नहीं है, गुरु के निकाले हुए को गुरु ही बक्श सकता है | सत्ता और बलवंडा को गुरु साहिबान की निंदा करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी |
जीवन में कभी भी किसी भी संत महात्माओं की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो महात्माओं की निंदा करते हैं इस दुनिया में तो क्या आगे भी जगह नहीं मिलती |
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