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गुरु के ऊपर विश्वास

 हम लोग हमेशा सत्संग में जाते हैं, वहां जो कुछ भी बताते हैं उसको समझते भी हैं लेकिन जब हमारे ऊपर कोई मुसीबत आती है तो हमारा विश्वास बिखर जाता है। हमें हमेशा अपने गुरु के ऊपर विश्वास रखना चाहिए अगर हमारा विश्वास पक्का होगा तो ही हमारा सत्संग में जाने का उद्देश्य पूरा होगा। अगर हमारा गुरु की कही बात पर विश्वास ही पक्का नहीं होगा तो हम रूहानी तरक्की कैसे कर पाएंगे। हम लोग अक्सर दूसरों को उपदेश देते हैं लेकिन जब हमारे ऊपर कोई बात आती है तो हम घबरा जाते हैं। सबसे पहले हमें गुरु के ऊपर विश्वास करना चाहिए उसके बाद दूसरों को उपदेश देना चाहिए।

गुरु का चोर

एक बार भाई गुरदास ने यह पंक्तियां लिखी और पढ़कर गुरु हरगोबिंद साहिब को सुनाई।

अगर मां बदचलन हो तो पुत्र को विचार नहीं करना चाहिए। न मां को सजा देनी चाहिए , और न ही उसका साथ छोड़ना चाहिए :

अगर गाय हीरा जाए तो उसका पेट नहीं फाड़ना चाहिए। अगर पति बाहर पराई स्त्रियों के पास जाता है तो उसकी पत्नी को उसकी नकल नहीं करनी चाहिए, बल्कि पवित्रता रखनी चाहिए :

राजा चमड़े के सिक्के चलाए, ब्राह्मणी शराब पिए तो लोग मजबूर है।

अगर गुरू कौतुक दिखाए तो शिष्य को डगमगाना नहीं चाहिए। इस प्रकार इन सब उदाहरणों के द्वारा आप शिष्य को आडोल रहने की हिदायत दे रहे थे।

गुरु साहिब ने सुना तो सोचा कि इन्होंने बानी तो बहुत ऊंची कह दी है, लेकिन इसमें अहंकार की बू है, इन्हें आजमाना चाहिए। यह सोचकर फरमाया, “मामा जी ! काबुल से घोड़े खरीदने हैं, आप जाकर खरीद लाओ।” भाई गुरदास जी ने कहा, “बहुत अच्छा जी।” उन दिनों में कागज के नोट नहीं हुआ करते थे, अशरफिया होती थी। गुरु साहिब ने अशरफिया की थैलियां मंगवा कर आगे रख दी। भाई गुरदास जी ने अपने हाथ से गिनकर थैलियों का मुंह बंद किया और संदूको में डालकर खच्चररो पर लाद ली। उन दिनों रेलगाड़ियां नहीं होती थी। भाई साहिब बड़े विद्वान थे।
कुछ शिष्यों को साथ लेकर गांव-गांव में सत्संग करते हुए काबुल पहुंचे।

काबुल में भाई साहब घोड़ों के पठान सौदागरों से मिले। उनके साथ सौदा तय किया और कुछ शिष्य घोड़े लेकर लाहौर गुरु जी के पास चले गए। अब रकम चुकाने के लिए तंबू में गए और संदूक खोलकर थैलियों के मुंह खोले तो अशरफयों की जगह कंकड़ और पत्थर दिखाई दिए। बहुत हैरान हुए, सोचा कि पठानों के साथ सौदा किया है, वे बाहर खड़े हैं, घोड़े भेज चुका हूं, अगर रकम न दी तो पेट फाड़ देंगे। बहुत आंखें मल मल कर देखा, मगर उन्हें तो कंकड़ और पत्थर ही दिखाई दिए। आखिर पिछले तरफ से तंबू फाड़ कर बाहर निकल कर भाग गए। वह इतना डर गए कि की सहायता के लिए गुरु के आगे विनती करना भी भूल गए। न लहोर ठहरे, ना अमृतसर, सीधे काशी जा पहुंचे। जब शिष्यों को इंतजार करते देर हो गई और भाई साहब बाहर ना निकले तो वह खुद तंबू के अंदर गए। वहां देखा कि संदूक खुला है, थैलियों के मुंह भी खुले हैं और अशरफिया पड़ी हुई है, लेकिन भाई साहब गायब हैं और तंबू एक ओर से फटा हुआ है। उन्होंने पठानों को अशरफिया देकर हिसाब चुका दिया और गुरु साहिब के पास वापस आकर सारी बात सुना दी।

अब महात्माओं का काम तो सत्संग करना ही है। सो भाई गुरदास जी ने काशी में जाकर सत्संग करना शुरू कर दिया। सैकड़ों लोग उनके सत्संग में आने लगे। जब लोगों ने सत्संग सुना तो कहने लगे कि यह बड़े महात्मा है। काशी का राजा भी आपके सत्संग में आने लगा और कुछ ही दिनों में आपका श्रद्धालु बन गया।

कुछ महीनों बाद गुरु जी को भाई गुरदास का पता चल गया, उन्होंने काशी के राजा को चिट्ठी लिखी कि आप की सभा में हमारा एक चोर है उसके हाथ पांव बांधकर हमारे पास भिजवा दो। चोर को ढूंढने की जरूरत नहीं, सिर्फ सार्वजनिक स्थानों या सत्संग में चिट्ठी पढ़कर सुना देना, जो चोर होगा वह आप ही बोल पड़ेगा।

अब सत्संग में, सारी संगत बैठी हुई थी और भाई गुरदास जी सत्संग कर रहे थे, राजा ने वहां चिट्ठी पढ़कर सुनाई कि हमारी सभा में गुरु अर्जुन साहिब का एक चोर है, वह आप ही बोल पड़ेगा। यह सुनते ही भाई साहब जी उठकर बोले कि मैं ही गुरु साहिब का चोर हूं। मुझे रस्सियों से बांधकर गुरुजी के पास ले चलो। सत्संग में सन्नाटा छा गया। लोग कहने लगे आप चोर नहीं, आप तो बड़े महात्मा हैं, चोर कोई और होगा। अब रस्सी कौन बांधे ! आपने अपनी पगड़ी के साथ खुद ही अपने आप को बांध लिया। कहां काशी और कहां अमृतसर ! उसी हालत में अमृतसर आए। इसका नाम प्रेम है। गुरु साहिब ने कहा, “मामा जी ! फिर वही बात सुनाओ ।” अब वह बात कौन सुनाएं ! अनुभव हो चुका था। पैरों पर गिर पड़े और यह बात कही :

अगर मां ही बेटे को जहर दे तो उसको कौन बचा सकता है ? अगर पहरेदार ही घर में चोरी करता है, तो फिर रक्षा कौन कर सकता है ? अगर नाव वाला ही नाव को डुबो दे तो कौन बचा सकता है ? अगर रास्ता बताने वाला ही जानबूझकर उल्टे रास्ते पर चलने लगे तो पीछे चलने वाले किस के आगे फरियाद करें ? अगर बाड़ ही खेत को खाना शुरू कर दे तो खेत की रखवाली कौन करेगा ? इसी प्रकार अगर गुरु स्वांग करें या शिष्य को भरमाए को भ्रम तो बेचारे शिष्य की क्या ताकत है कि वह स्थिर रह सके !

मतलब तो यह है कि जब भूचाल आता है तो बड़े बड़े पहाड़ हिल जाते हैं, वृक्ष हिल जाते हैं, मकान गिर जाते हैं। सो, अगर गुरु स्वांग करें तो वह आप ही शिष्य को स्थिर रख सकता है और कोई नहीं।

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