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मन की शुद्धि



 मनुष्य के अंतर में मन की शुद्धि का होना बहुत जरूरी है “ जब तक मन शुद्ध नहीं होगा तब तक मनुष्य के कार्य संपूर्ण नहीं होंगे, क्योंकि जब तक मन शुद्ध नहीं होता तब तक इंसान दुविधा में ही पड़ा रहता है। और दुविधा में किया गया काम कभी भी सफल नहीं होता।

हम इस संसार में जो भी कार्य करते हैं पूरा सोच विचार के और मन की शुद्धि के साथ करते हैं तब कहीं जाकर हमें उस काम में सफलता हासिल होती है। और उस कार्य को करने में हमें अच्छा भी लगता है। जब तक मन के अंदर शुद्धि नहीं होगी तब तक अच्छे काम नहीं होंगे क्योंकि अच्छे कार्य को करने के लिए मन का अच्छा होना जरूरी है।

 अगर मन के अंदर बुरे विचार होंगे मन शुद्ध ही नहीं होगा तो कार्य भी अपने आप बुरा ही होता चला जाएगा ना चाहते हुए भी कि हमारे विचार हमारी करने के अंदर छलकते हैं।

इसलिए हमें अपने मन को हमेशा शुद्ध रखना है ताकि हमारे विचार शुद्ध हो विचार के जरिए हमारा काम भी अच्छा हो। इस बात को हम द्रोपदी और सूपच की अध्यात्मिक साखी के जरिए समझते हैं ।

द्रौपदी और सूपच की साखी

जब महाभारत की लड़ाई खत्म हुई तो भगवान कृष्ण ने पांडवों को बुलाकर कहा कि अश्वमेध यज्ञ कराओ, प्रायश्चित करो, नहीं तो नर्क में जाओगे। लेकिन तुम्हारा यज्ञ तब संपूर्ण होगा जब आकाश में घंटा बजेगा। पांडवों ने यज्ञ किया, सारे भारतवर्ष के साधु महात्मा बुलाए। सब खाना खा चुके घंटा न बजा। सोचा कि भगवान कृष्ण को नहीं खिलाया। भगवान कृष्ण ने भी भोजन किया, लेकिन फिर भी घंटा न बजा। आखिर अर्थ की कि भगवान ! आप योग दृष्टि से देखो, कोई रह तो नहीं गया। भगवान ने कहा कि एक साधु है, उसका नाम सुपच है। वह भजन में मस्त, जंगल में रहता है और पत्ते खाकर गुजारा करता है, कहीं जाता नहीं। उसको बुलाओ  और भोजन खिलाओ तब आपका यज्ञ संपूर्ण होगा।

पांडवों में राजा होने का घमंड था इसलिए उन्होंने खुद जाने की बजाय अपने एक दूत को भेज दिया। उन्होंने सोचा कि जैसे मक्खियां गुड पर मंडराने लगती  हैं, ऐसे ही जब उस महात्मा को इस यज्ञ के बारे में पता चलेगा तो वह खुद ही भोजन करने के लिए आ जाएगा। पर महात्मा ने वहां जाने से इनकार कर:दिया।

अब पांडव खुद उस महात्मा को लेने के लिए गए और कहा कि महात्मा जी ! हमारे यहां यज्ञ है, आप चल कर उसे संपूर्ण करें। महात्मा ने कहा कि मैं उनके घर जाता हूं जो मुझे शो अश्वमेध यज्ञ का फल दें। पांडव कहने लगे कि हमारा तो एक यज्ञ संपूर्ण नहीं हो रहा और तुम सो यज्ञ का फल मांग रहे हो ! वह बोला कि मेरी तो शर्त यही है। पांचो पांडव बारी-बारी से गए लेकिन महात्मा ने अपनी शर्त ना बदली। हारकर वे वापस आ गए। पांडव निराश होकर बैठे थे कि द्रोपदी ने कहा, “आप उदास क्यों बैठे हैं ? मैं सूपच लाती हूं । यह भी कोई बड़ी बात है !” द्रोपदी उठी, नंगे पांव पानी लाई, अपने हाथों से प्यार के साथ खाना बनाया । फिर नंगे पांव चलकर महात्मा के पास गई और प्रार्थना की। “महात्मा जी ! हमारे यहां यज्ञ है। आप चल कर उसे संपूर्ण करें।” महात्मा ने कहा कि तुम्हें पांडवों ने बताया होगा कि मेरा क्या प्रण है।” कहने लगी कि महाराज मुझे पता है। महात्मा ने कहा, लाओ फिर सो अश्वमेध यज्ञ का फल।” द्रोपदी ने कहा, “महात्मा जी ! मैंने आप जैसे संतों से सुना है कि जब संतो की ओर जाएं तो एक-एक कदम पर अश्वमेध यज्ञ  का फल मिलता है। इसलिए मैं जितने कदम आपके पास चल कर आई हूं, उनमें से सो अश्वमेध यज्ञों का फल आप ले ले और बाकी मुझे दे दे।” यह सुनकर सूपच  चुपचाप द्रोपदी के साथ चल पड़ा।

जब खाना परोसा तो महात्मा ने सब प्रकार के व्यंजनों को एक साथ मिला लिया। द्रोपदी खाना बनाने में सब राजकुमारियों और रानियों में अव्वल नंबर पर थी। दिल में कहने लगी कि आखिर अपनी औकात दिखा दी। आने की क्या कदर ! अगर अलग-अलग खाता तो इसको पता चल जाता कि द्रोपदी के खाने में क्या स्वाद है। जब महात्मा खा चुका तब भी घंटा न बजा। पांडव बड़े हैरान हुए। आखिर कृष्ण जी से पूछा कि महाराज ! अब क्या कसर है ? भगवान कृष्ण ने कहा कि द्रौपदी से पूछो उसके मन में कसर है।

द्रोपदी को पता नहीं था कि सूपच ने सारे भोजन को मिलाकर भोजन के स्वाद को जानबूझकर खत्म किया है। महात्मा या तो खाना खाते समय सारे खाने( व्यंजन) को मिलाकर उसका स्वाद नष्ट कर देते हैं या अपनी सूरत को खाना खाने से पहले अंदर ऊपर ले जाते हैं। नतीजा यह होता है कि खाना चाहे खट्टा हो या नमकीन, मीठा हो फीका, रुखा हो या सुखा, चाहे कैसा भी हो, उनको स्वाद का पता नहीं चलता। जब द्रोपदी ने क्षमा मांग कर अपना मन शुद्ध कर लिया तो घंटा बजा।

सो मालिक को केवल भक्ति और नम्रता ही प्यारी है। उस के दरबार में जाती पाती कि नहीं, प्रेम और भक्ति की कदर है ।

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