मनुष्य जन्म अनमोल है बड़े ही भाग्यशाली जीव होते हैं जो इस मनुष्य चोले को धारण करते हैं। हमने अक्सर देखा होगा इस संसार में बहुत सारे जीव जंतु है, लेकिन केवल एक मनुष्य ही है जिसे विवेक की ताकत मिली हुई है। यह विवेक की ताकत हमें इसीलिए मिली ताकि हम अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करके अपने इस अनमोल जीवन से फायदा उठाएं और अपने इस जीवन को परमात्मा की भक्ति में लगाएं।
लेकिन हम अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करते और जो हमें यह अनमोल जन्म मिलता है उसे हम ऐसे ही कौड़ियों के भाव गवाते चले जाते हैं। और अंत समय हमें पछतावा होता है। हम हर काम में कहते चले जाते हैं कि पहले यह काम खत्म हो जाए फिर हम भगवान की भक्ति करेंगे पर समय हाथ से निकलता ही चला जाता है और यह मनुष्य जन्म व्यर्थ ही चला जाता है।
अभी भी जो मनुष्य जन्म हमारा बचा हुआ है. इसमें हम अपने विवेक को अगर इस्तेमाल करते हैं और इस बचे हुए मनुष्य जन्म को हम परमात्मा की भक्ति में लगाते हैं तब भी हम कोई ना कोई फायदा उठा सकते है । नहीं तो अंत समय हमें बहुत पछताना पड़ेगा। हम इस बात को एक छोटी सी कहानी के जरिए समझते हैं।
मानव जीवन पारस है
एक बहुत ही गरीब दुकानदार था। उसकी कमाई बहुत ही कम थी, उसका गुजारा नहीं होता था। इत्तेफाक से एक दिन एक महात्मा उसके पास आए। उस दुकानदार ने बड़े ही प्रेम प्यार से उनकी सेवा की।
जब महात्मा प्रसन्न हुए तो उसने आंखों में आंसू भरते हुए प्रार्थना की, “महात्मा जी मैं बहुत गरीब हूं। मेरा गुजारा नहीं होता, आप मुझ पर कृपा करो।” महात्मा मेहरबान हो गए और कहने लगे कि मेरे पास पारस है, मैं तुम्हें 3 महीने के लिए देता हूं। इतने समय में जितना चाहो सोना बना लेना। महात्मा तो कृपा करके चले गए, लेकिन जीव का भाग्य उसके साथ रहता है। वह गरीब दुकानदार बाजार गया। बाजार में पूछा कि लोहे का क्या भाव है ? उन्होंने कहा कि पहले तो पांच रुपए मन था अब सात रुपए मन है। कहने लगा, “मुझे यह घाटे का सौदा नहीं करना।” उस मूर्ख को इतना पता नहीं था कि एक मन सोने का कितना रुपया होता है। बोला,“जब पांच रुपए मन होगा तब खरीद लूंगा।” दुकानदार वापिस घर लौट आया। दूसरे महीने फिर बाजार गया और पूछा, “लोहे का क्या भाव है ? दुकानदार ने कहा, “लाला जी, अब तो लोहे का भाव और भी बढ़ गया है।” वह फिर बोला, “जब पांच रुपए मन होगा तब खरीद लूंगा।” तीसरे महीने वह फिर बाजार गया लोहे का भाव पहले से भी बढ़कर 15 रुपए हो चुका था। वह खाली हाथ वापस आ गया।
इतने में 3 महीने गुजर गए। उधर महात्मा ने सोचा कि चलो जाकर अपना पारस वापस ले आए ; उस गरीब दुकानदार ने तो बड़े-बड़े आलीशान मकान बनवा लिए होंगे। लेकिन जब वहां पहुंच कर देखा तो हैरान रह गए। वहीं टूटी हुई दुकान, वही पुराना सा मकान। महात्मा अपना पारस लेकर वापस चले गए।
यही मिसाल हमारे ऊपर घटती है। मनुष्य जन्म पारस है। महात्मा कुल मालिक है, जिसने हम पर कृपा करके हमें पारस जैसा मनुष्य जन्म दिया है। हमारे अंदर कुल मालिक अकालपुरुष है। हम संसार के बाकी सब कामों की और तों ध्यान देते हैं लेकिन परमात्मा से मिलाप के काम को टालते रहते हैं। हम यह नहीं समझते कि परमात्मा से मिलाप करके हम उसका रूप हो जाएंगे और जन्म मरण के बंधनों से हमेशा के लिए आजाद हो जाएंगे। अगर हम मनुष्य जन्म पाकर अंतर में तरक्की करके परमात्मा से मिलाप ना करें तो हमसे ज्यादा खोटे भाग्य वाला और कौन हो सकता।
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